ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥24॥
ब्रहम् ब्रह्म; अर्पणम् यज्ञ में आहुति डालना; ब्रहम् ब्रह्म; हविः-आहुति; ब्रह्म-ब्रह्म; अग्नौ-यज्ञ रूपी अग्नि में; ब्रह्मणा-उस व्यक्ति द्वारा; हुतम्-अर्पित; ब्रह्म-ब्रह्म; एव–निश्चय ही; तेन-उसके द्वारा; गन्तव्यम्-प्राप्त करने योग्य; ब्रह्म-ब्रह्म; कर्म-अर्पण; समाधिना-भगवत् चेतना में पूर्ण रूप से तल्लीन।
BG 4.24: जो मनुष्य पूर्णतया भगवत्च्चेतना में तल्लीन रहते हैं उनका हवन ब्रह्म है, हवन सामग्री ब्रह्म है और वह पात्र जिससे आहुति डाली जाती है वह ब्रह्म है, अर्पण कार्य ब्रह्म है और यज्ञ की अग्नि भी ब्रह्म है। ऐसे मनुष्य जो प्रत्येक वस्तु को भगवान के रूप में देखते हैं वे सहजता से उसे पा लेते हैं।
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वास्तव में संसार के पदार्थ भगवान की माया शक्ति से निर्मित हैं। शक्ति और शक्तिमान दोनों एक भी है और उनमें भेद भी होता है। उदाहरणार्थ प्रकाश अग्नि की शक्ति है। इसे अग्नि से पृथक् माना जाता है क्योंकि यह उससे बाहर होता है किन्तु इसे अग्नि के एक अंश के रूप में भी समझा जाना चाहिए। क्योंकि जब सूर्य की किरणें खिड़की से हमारे कमरे में आती हैं तब लोग कहते हैं कि 'सूर्योदय हो गया।' यहाँ पर लोग सूर्य की किरणों को सूर्य के साथ जोड़ कर देखते हैं। शक्ति और शक्तिमान का एक-दूसरे से भेद होता है किन्तु फिर भी शक्ति उसका अंश होती है। आत्मा भगवान की शक्ति है। इस आध्यात्मिक शक्ति को जीव शक्ति कहा गया है। श्रीकृष्ण ने इसकी व्याख्या सातवें अध्याय के चौथे और पाँचवे श्लोक में की है। चैतन्य महाप्रभु ने कहा है:
जीवतत्त्व-शक्ति, कृष्णतत्त्व-शक्तिमान् ।
गीता-विष्णुपुराणादि ताहाते प्रमाण।।
(चैतन्य चरितामृत, आदि लीला-7.117)
"भगवान श्रीकृष्ण शक्तिमान हैं और आत्मा उनकी शक्ति है। इसका वर्णन भगवद्गीता और विष्णु पुराण में किया गया है।" इस प्रकार आत्मा और भगवान एक भी है और इनमें भेद भी है किंतु जिन मनुष्यों का मन भगवत्च्चेतना में लीन रहता है वे समस्त संसार को भगवान के साथ एकाकार हुए देखते हैं न कि उससे पृथक् रूप में। श्रीमद्भागवतम् में निम्न प्रकार से वर्णन किया गया है:
सर्वभूतेषु यः पश्येद् भगवद्भावमात्मनः।
भूतानि भगवत्यात्मन्येष भागवतोत्तमः।।
(श्रीमद्भागवतम्-11.2.45)
"जो मनुष्य सर्वत्र और सब मनुष्यों में भगवान को देखता है वह परम आध्यात्मवादी है" ऐसे उन्नत आध्यात्मवादी जिनका मन पूर्णतया भगवत् चेतना में तल्लीन होता है, वे यज्ञ के अनुष्ठान, यज्ञ के उद्देश्य, यज्ञ की सामग्री, यज्ञ की अग्नि और यज्ञ के कर्मकाण्ड सबको भगवान से अभिन्न समझते हैं। किस भावना से यज्ञ सम्पन्न किए जाने चाहिए? इसकी व्याख्या करने के पश्चात् भगवान श्रीकृष्ण अब लोगों द्वारा इस संसार में शुद्धिकरण के लिए संपन्न किए जाने वाले विभिन्न प्रकार के यज्ञों का उल्लेख करेंगे।